जन्म का दिन, पहला क़दम और पहला शब्द हमारी ज़िंदगी के अहम पल होते हैं. मगर हम इन्हें याद क्यों नहीं रख पाते?
न्यूरोसाइंटिस्ट और मनोवैज्ञानिक इस सवाल से दशकों से जूझ रहे हैं.
बचपन की घटनाओं को याद न रख पाने को इन्फ़ेंटाइल एम्नेशिया कहते हैं. इसे समझाने के लिए कई तरह की बातें लंबे समय से कही जा रही हैं.
इसे लेकर सालों से अलग-अलग सिद्धांत बताए जाते रहे हैं.
अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान और न्यूरोसर्जरी के प्रोफे़सर निक टर्क-ब्राउन का कहना है कि असल बहस दो मुख्य सवालों पर टिकी है.
क्या हम बचपन में यादें बनाते हैं और बाद में भूल जाते हैं, या फिर हम बड़े होने तक कोई यादें बनाते ही नहीं?
प्रोफे़सर टर्क-ब्राउन के मुताबिक़ पिछले एक दशक तक शोधकर्ताओं का मानना था कि बच्चे यादें बनाते ही नहीं.
कुछ वैज्ञानिकों का तर्क था कि उनमें न तो ख़ुद को पहचानने की पूरी समझ होती है और न ही बोलने की क्षमता.
एक राय यह है कि चार साल की उम्र तक हम यादें इसलिए नहीं बना पाते क्योंकि हिप्पोकैम्पस, यानी दिमाग़ का वह हिस्सा जो यादें बनाता है, तब तक पूरा नहीं बनता.
प्रोफे़सर टर्क-ब्राउन कहते हैं, "बचपन में हिप्पोकैम्पस का आकार बहुत तेज़ी से बढ़ता है. हो सकता है कि शुरुआती अनुभव इसलिए याद न रहें क्योंकि उस समय ज़रूरी न्यूरल सर्किट नहीं होते."
बच्चे के दिमाग़ की इमेजिंगलेकिन इस साल की शुरुआत में प्रोफे़सर टर्क-ब्राउन की एक स्टडी ने अलग नतीजे दिखाए.
इसमें 4 महीने से 2 साल की उम्र के 26 बच्चों को कई तस्वीरें दिखाई गईं और उसी समय उनके दिमाग़ की स्कैनिंग कर हिप्पोकैम्पस की गतिविधि देखी गई.
इसके बाद इन बच्चों को एक पुरानी और एक नई तस्वीर साथ में दिखाई गई.
शोधकर्ताओं ने बच्चों की आंखों की हरकत देखी, ताकि यह पता चल सके कि वे किस तस्वीर को ज़्यादा देर तक देखते हैं?
अगर बच्चा पुरानी तस्वीर को ज़्यादा देर तक देखता, तो इसे सबूत माना गया कि उसने उसे याद रखा. पहले भी कई रिसर्च में ऐसा ही पाया गया था.
रिसर्च में पाया गया कि अगर बच्चा पहली बार कोई तस्वीर देखता है और उस समय उसका हिप्पोकैम्पस ज़्यादा सक्रिय रहता है, तो वह तस्वीर बाद में याद रहने की संभावना बढ़ जाती है.
यह असर ख़ासतौर पर 12 महीने से बड़े बच्चों में देखा गया.
इससे साफ़ होता है कि लगभग एक साल की उम्र तक हिप्पोकैम्पस यादें दर्ज करना शुरू कर देता है.
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प्रोफे़सर टर्क-ब्राउन के मुताबिक़, उनकी टीम की यह स्टडी यह समझने की ओर पहला क़दम है कि क्या शिशु हिप्पोकैम्पस में यादें बना पाते हैं? लेकिन इस पर और रिसर्च की ज़रूरत है.
वह कहते हैं, "अगर हम वाक़ई ये यादें स्टोर कर रहे हैं, तो सवाल है कि वे कहां जाती हैं? क्या वे अब भी रहती हैं? और क्या हम उन्हें दोबारा पा सकते हैं?"
साल 2023 की एक स्टडी में पाया गया कि चूहे, जिन्होंने कम उम्र में भूलभुलैया से निकलना सीखा था, बड़े होने पर उसे भूल गए.
लेकिन जब वैज्ञानिकों ने हिप्पोकैम्पस के उस हिस्से को सक्रिय किया जो सीखने से जुड़ा था, तो यादें फिर से लौट आईं.
इंसानी शिशुओं में क्या ऐसा ही होता है और क्या उनकी यादें कहीं दबकर रह जाती हैं? यह अब तक पता नहीं चल पाया है.
यूके की यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टमिंस्टर की प्रोफे़सर कैथरीन लवडे कहती हैं कि छोटे बच्चों में यादें बनाने की क्षमता होती है, कम से कम तब तक, जब तक वे बोलना शुरू नहीं करते.
उनका कहना है, "हम देखते हैं कि छोटे बच्चे नर्सरी से लौटकर बताते हैं कि उनके साथ क्या हुआ? लेकिन कुछ साल बाद वे वही बातें दोबारा नहीं बता पाते. इससे साफ़ है कि यादें बनती तो हैं, लेकिन लंबे समय तक नहीं रहतीं."
वह कहती हैं, "असल सवाल यह है कि क्या हम उन यादों को समय के साथ गहराई से सहेज पाते हैं. क्या वे जल्दी धुंधली हो जाती हैं और क्या वे इतनी मज़बूत होती हैं कि हम उन्हें सोच-समझकर याद कर सकें?"
क्या यादें झूठी भी हो सकती हैं?प्रोफे़सर लवडे कहती हैं कि इन्फ़ेंटाल एम्नेशिया को समझना और कठिन इसलिए है क्योंकि यह जानना लगभग असंभव है कि हमारी पहली याद सच में वास्तविक है या नहीं.
उदाहरण के तौर पर, कई लोगों को लगता है कि उन्हें बचपन की कोई घटना या पालने का कोई पल याद है.
लेकिन उनका कहना है कि ऐसी यादें असली अनुभवों से जुड़ी होने की संभावना बहुत कम है.
वह बताती हैं, "याददाश्त हमेशा एक तरह का पुनर्निर्माण होती है. अगर हमें किसी घटना के बारे में जानकारी मिलती है, तो हमारा दिमाग़ एक ऐसी याद बना सकता है जो बिल्कुल असली लगती है."
वह आगे कहती हैं, "असल में यह चेतना का सवाल है और चेतना को साफ़-साफ़ परिभाषित करना सबसे कठिन काम है."
प्रोफे़सर टर्क-ब्राउन का कहना है कि इन्फ़ेंटाइल एम्नेशिया का रहस्य हमारी पहचान से गहराई से जुड़ा है.
वह कहते हैं, "यह हमारी पहचान का हिस्सा है. और यह सोच कि हमारी ज़िंदगी के शुरुआती सालों में ऐसा ब्लाइंड स्पॉट है जहाँ हमें कुछ भी याद नहीं रहता, लोगों के अपने बारे में सोचने के ढंग को बदल देती है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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