
साल 2010 में भारतीय फ़िल्ममेकर नीरज घेवान ने मसान फ़िल्म के साथ कान्स फ़िल्म फ़ेस्टिवल में डेब्यू किया था. बनारस में रची बसी ये फ़िल्म प्रेम, दु:ख, और जाति व्यवस्था के चंगुल में फंसी ज़िंदगी की कहानी है.
इस फ़िल्म में मुख्य किरदार अभिनेता विक्की कौशल ने निभाया था. उन्होंने इस फ़िल्म में एक ऐसे व्यक्ति का किरदार अदा किया है जो जाति व्यवस्था में तथाकथित निचली जाति से आता है, जिसका परिवार गंगा किनारे शवों का दाह संस्कार कराने का काम करता है.
मसान को कान्स फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'अन सर्टन रिगार्ड' कैटेगरी में दिखाया गया था. इस कैटेगरी में उन फ़िल्मों को शामिल किया जाता है जो कुछ अलग और नई तरह की कहानियां बताती हैं.
इस फ़िल्म ने प्रोमिसिंग फ़्यूचर प्राइज़ अपने नाम किया था.
तब से, घेवान भारत के हाशिये पर पड़े तबके के लोगों की कहानी कहने की तलाश में थे.
पांच साल पहले कोविड महामारी के दौरान घेवान के दोस्त सोमेन मिश्रा ने उन्हें न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे 'टेकिंग अमृत होम' नाम के एक आर्टिकल को पढ़ने की सलाह दी थी. ये आर्टिकल पत्रकार बशारत पीर ने लिखा था. सोमेन मिश्रा मुंबई में धर्मा प्रोडक्शंस के क्रिएटिव डेवलपमेंट के हेड हैं.
इस आर्टिकल में बताया गया था कि कैसे लॉकडाउन के दौरान लाखों लोग, जिनके पास कोई साधन नहीं था, सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गांव लौट रहे थे. लेकिन नीरज को इस आर्टिकल की सबसे ख़ास बात इसमें दिखाई गई एक मुस्लिम और एक दलित लड़के के बीच की बचपन की दोस्ती लगी थी.
यही आर्टिकल उनकी नई फ़िल्म 'होमबाउंड' की प्रेरणा बना.
यह फ़िल्म इस हफ़्ते कान्स फ़िल्म फे़स्टिवल के 'अन सर्टन रिगार्ड' सेक्शन में दिखाई गई और इस फ़िल्म के प्रीमियर के बाद लोगों ने इस फ़िल्म के लिए नौ मिनट तक खड़े होकर तालियां बजाईं.
कैसे मार्टिन स्कॉर्सेसे बने फ़िल्म 'होमबाउंड' का हिस्साफ़िल्म देखने के बाद ऑडियन्स में बैठे कई लोगों की आंखों में आंसू थे.
नीरज घेवान ने फ़िल्म के मुख्य प्रोड्यूसर करण जौहर को गले से लगाया. वहां मौजूद फ़िल्म के एक्टर ईशान खट्टर, विशाल जेठवा और जाह्नवी कपूर ने भी उन दोनों को गले लगाया.
कान्स फ़िल्म फ़ेस्टिवल 2025 में ये सबसे बड़ा दक्षिण एशियाई कार्यक्रम था, इसलिए कई मशहूर फ़िल्मी हस्तियां भी इस फ़िल्म को देखने आई थीं.
इस फ़िल्म को एक ऐसा समर्थन भी मिला जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी.
इसके मुख्य निर्माता करण जौहर हैं, जो भारत के बड़े फ़िल्म निर्माताओं में से एक हैं और 'कभी खुशी कभी ग़म' और 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' जैसी कई हिट फ़िल्में बना चुके हैं.
लेकिन पिछले महीने मशहूर हॉलीवुड फ़िल्ममेकर मार्टिन स्कॉर्सेसे इस फ़िल्म से बतौर एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर जुड़े. उन्हें इस फ़िल्म के बारे में 'होमबाउंड' फ़िल्म की ही फ़्रेंच प्रोड्यूसर मेलिता टोस्कान डु प्लांटिए ने बताया था.
यह पहली बार है जब स्कॉर्सेसे ने किसी समकालीन भारतीय फ़िल्म प्रोजेक्ट का समर्थन किया है. अब तक वह केवल पुरानी भारतीय फ़िल्मों को फिर से बहाल करने में मदद करते आए थे.
पिछले महीने स्कॉर्सेसे ने अपने बयान में कहा, "मैंने नीरज की पहली फ़िल्म मसान 2015 में देखी थी और मुझे वह बहुत पसंद आई थी. जब मुझे मेलिता टोस्कान डु प्लांटिए ने उनकी नई फ़िल्म का प्रोजेक्ट भेजा, तो मैं बहुत उत्साहित था."
"मुझे इसकी कहानी बेहद पसंद आई. मैं इस काम में मदद करना चाहता था. नीरज ने एक खूबसूरत फ़िल्म बनाई है, जो भारतीय सिनेमा के लिए बहुत अहम है."
नीरज घेवान बताते हैं कि स्कॉर्सेसे ने उनकी फ़िल्म को बनाने में मदद की. उन्होंने कई बार फ़िल्म के एडिटिंग प्रोसेस में टीम को गाइड किया और सलाह दी.
स्कॉर्सेसे ने फ़िल्म की कहानी और उसके सामाजिक संदर्भ को समझने की भी कोशिश की.
नीरज घेवान के लिए यह बहुत ज़रूरी था कि फ़िल्म में जो मुद्दा उठाया गया है, उसकी भावना और सच्चाई को सही तरीके़ से दिखाया जाए.
फ़िल्म के दो मुख्य किरदार मोहम्मद शोएब अली (ईशान खट्टर) और चंदन कुमार (विशाल जेठवा) दोनों ऐसी पृष्ठभूमि से आते हैं जो सदियों से समाज की तथाकथित ऊंची जातियों के हाथों भेदभाव का सामना करते आ रहे हैं.
लेकिन दोनों का सपना है कि वे इन सामाजिक बाधाओं को पार करें. फ़िल्म में वो दोनों अपने राज्य की पुलिस फ़ोर्स में भर्ती होकर एक नई पहचान बनाने की कोशिश करते हैं.
नीरज घेवान ने यह भी बताया कि वह खु़द एक दलित परिवार से हैं. यह पहचान उनके जीवन का अहम हिस्सा रही है और बचपन से ही उन्हें प्रभावित करती रही है.
बड़े होकर उन्होंने बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई की और फिर दिल्ली के पास गुरुग्राम में एक कॉर्पोरेट में नौकरी की.
वह कहते हैं कि उन्हें कभी सीधा भेदभाव नहीं झेलना पड़ा, लेकिन हमेशा यह एहसास रहा कि वह समाज में कहां खड़े हैं.
आज भी वह उस पहचान का बोझ महसूस करते हैं जो उनके जन्म के साथ जुड़ी हुई है.
वह कहते हैं, "मैं पूरी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के इतिहास में अकेला ऐसा व्यक्ति हूं जो दलित समुदाय से आता है और जो कैमरे के पीछे भी है और सामने भी. यही असली फ़र्क है, जिसमें हम सब जी रहे हैं."
नीरज घेवान कहते हैं कि भारत की ज़्यादातर आबादी गांवों में रहती है, लेकिन हिंदी फ़िल्मों में गांवों की कहानियां बहुत कम दिखाई देती हैं.
उन्हें इस बात से भी तकलीफ़ होती है कि हाशिए पर पड़े समुदायों के बारे में केवल आंकड़ों के तौर पर ही बात की जाती है.
वो कहते हैं, "अगर हम उन आंकड़ों में से सिर्फ़ एक इंसान की कहानी जानें कि उसकी ज़िंदगी में क्या हुआ, वो यहां तक कैसे पहुंचा तो शायद हमें बहुत कुछ समझ आ सके.
"मुझे लगा कि यही कहानी दिखाने लायक है."
जब नीरज घेवान ने फ़िल्म की पटकथा को लिखना शुरू किया तो उन्होंने कोविड से पहले की उन दोनों किरदारों की ज़िंदगी के बारे में कल्पना करना शुरू किया.
नीरज घेवान का बचपन हैदराबाद में बीता और उनका दोस्त असगर, मुस्लिम समुदाय से था. इसलिए उन्हें अली और कुमार के अनुभवों से गहरा जुड़ाव महसूस हुआ.
वह कहते हैं, "मुझे जो बात सबसे ज़्यादा छू गई, वो थी इस रिश्ते के पीछे की मानवता, आपसी संबंधों की गहराई और उस रिश्ते की अंदरूनी परतें."
यह उन्हें उनके अपने बचपन की यादों में वापस ले गया.
घेवान के निर्देशन में बनी फ़िल्म 'होमबाउंड' में सर्दियों की गुनगुनी धूप जैसी नरमी है.
यह फ़िल्म उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में बेहद खूबसूरती से फ़िल्माई गई है, इसमें मुस्लिम और दलित किरदारों की रोज़मर्रा की जद्दोजहद और छोटी-छोटी खुशियों को बारीकी से दिखाया गया है.
दोनों पुरुष पात्रों के साथ-साथ एक महिला (जिसे जाह्नवी कपूर ने निभाया है) के साथ उनके रिश्ते, बातचीत और अनुभव दर्शकों को सोचने पर मजबूर करते हैं. जाह्नवी कपूर और विशाल जेठवा दोनों दलित किरदार निभा रहे हैं.
ज़्यादातर समय, घेवान की स्क्रिप्ट दर्शकों को बांधे रखती है.
साल 2019 में तब किसी को अंदाज़ा नहीं था कि कोविड महामारी कितनी बड़ी होने वाली है.
लेकिन ये फ़िल्म बड़ी ही संवेदनशीलता से उस बदलाव की आहट देती है और यह दिखाती है कि कैसे कोई भी संकट जाति, वर्ग या धर्म नहीं देखता. वह सबको प्रभावित करता है.
'होमबाउंड' फ़िक्शन और वास्तविकता का एक ऐसा मेल है जो समाज की सच्चाई को दिखाने वाला एक ज़रूरी दस्तावेज़ बन जाती है.
यह फ़िल्म सिर्फ़ भावुक ही नहीं करती बल्कि यह सोचने पर मजबूर करती है और ये उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के बारे में एक नई समझ पैदा होगी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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