भारत और अमेरिका के संबंधों के जाने-माने स्कॉलर एश्ले टेलिस को अमेरिका में गिरफ़्तार किया गया है. एश्ले टेलिस अमेरिकी रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के लिए काम कर चुके हैं.
टेलिस पर आरोप है कि उन्होंने सरकारी संस्थान से गोपनीय दस्तावेज़ हासिल कर अपने पास रखे थे. जस्टिस डिपार्टमेंट का कहना है कि टेलिस के वर्जीनिया स्थित घर पर एक हज़ार से ज़्यादा गोपनीय दस्तावेज़ मिले हैं.
अमेरिकी न्यूज़ नेटवर्क सीएनन ने कोर्ट रिकॉर्ड के हवाले से लिखा है कि एश्ले टेलिस ने एयर फोर्स से जुड़े रणनीति और तकनीक से जुड़े दस्तावेज़ों तक अपनी पहुँच बनाई और उसे हासिल किया.
अमेरिकी मीडिया में कहा जा रहा है कि मंगलवार को एफ़बीआई का एफेडेविट सार्वजनिक हुआ था, जिसमें कहा गया है कि टेलिस ने पिछले कुछ सालों में कई बार चीन की सरकार के अधिकारियों से मुलाक़ात की थी.
सीएनएन के मुताबिक़ एफ़ेडेविट में एक एफ़बीआई एजेंट ने लिखा है, ''अप्रैल 2023 में टेलिस ने वॉशिंगटन में चीन की सरकार के अधिकारियों के साथ डिनर किया था. इन्हें कई मौक़ों पर ईरान-चीन संबंधों, उभरती नई तकनीक, जिनमें एआई भी शामिल है, के बारे में बात करते हुए सुना गया है.''
हालांकि एश्ले जे टेलिस के वकील डेब्रा कर्टिस और जॉन नेसकस ने एक बयान जारी कर कहा, "टेलिस एक सम्मानित स्कॉलर और सलाहकार हैं. हम उन पर लगाए आरोपों का मज़बूती से खंडन करते हैं."
टेलिस ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय में बिना पैसे लिए सलाहकार के तौर पर काम किया था. इसके अलावा इन्होंने अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के थिंक टैंक ऑफिस ऑफ नेट असेसमेंट (ओएनए) में एक कॉन्ट्रैक्टर का काम किया था.
64 साल के एश्ले टेलिस का जन्म भारत में हुआ था लेकिन वह अमेरिकी नागरिक हैं. टेलिस को अमेरिका में और अमेरिका से बाहर भी भारत की विदेश नीति के चर्चित विशेषज्ञ के रूप में देखा जाता है. कहा जाता है कि भारत के साथ सिविल न्यूक्लियर डील कराने में उनकी अहम भूमिका थी.
एश्ले टेलिस भारत और अमेरिका के संबंधों को लेकर बहुत कुछ बोलते और लिखते रहे हैं. टेलिस की बातों को मीडिया में काफ़ी तवज्जो मिलती रही है. टेलिस जो भी कहते थे, उसमें अमेरिकी सोच और उसकी रणनीति की झलक मिलती थी.
अमेरिका और भारत के रिश्तों पर टेलिस ने हाल-फ़िलहाल में जो कुछ भी कहा है, हम उसे साझा कर रहे हैं. एश्ले टेलिस थिंक टैंक कार्नेगी एन्डॉमेंट के सीनियर फेलो भी हैं.
टेलिस ने इसी साल अगस्त महीने में अमेरिकी मैगज़ीन फॉरेन अफेयर्स में भारत की विदेश नीति पर एक लंबा आर्टिकल लिखा था.
टेलिस का कहना था कि भारत की महारणनीति ही महालक्ष्य के आड़े आ रही है.
एश्ले जे टेलिस ने लिखा था, ''इस सदी की शुरुआत से ही अमेरिका भारत को एक बड़ी शक्ति बनाने की कोशिश करता रहा है. जॉर्ज डब्ल्यू बुश जब राष्ट्रपति थे तो अमेरिका भारत के असैन्य परमाणु कार्यक्रम को लेकर बड़े समझौते पर राज़ी हुआ था. ऐसा तब था, जब भारत का परमाणु कार्यक्रम परमाणु हथियारों से जुड़े होने के कारण विवादित था. ओबामा जब राष्ट्रपति बने तो अमेरिका और भारत के बीच डिफेंस इंडस्ट्री को लेकर सहयोग बढ़ा. इसका मक़सद सैन्य क्षमता बढ़ाना था.''
''डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिका ने पहली बार भारत से संवेदनशील ख़ुफ़िया सूचना साझा करना शुरू किया. ट्रंप ने ही भारत को एडवांस टेक्नोलॉजी देना शुरू किया, इससे पहले यह टेक्नोलॉजी अमेरिका केवल अपने सहयोगियों को देता था. बाइडन जब राष्ट्रपति बने तो अमेरिका ने भारत को उच्च तकनीक वाले फाइटर जेट इंजन की टेक्नोलॉजी देना शुरू किया. भारत के साथ सैन्य सहयोग भी बढ़ा. बुश ने भारत को 21वीं सदी की बड़ी विश्व शक्ति बनाने का वादा किया था.''
एश्ले जे टेलिस कहते हैं कि इन वादों के तर्क बहुत ही सरल थे. टेलिस ने लिखा है, ''अमेरिका चाहता था कि भारत शीत युद्ध के ज़माने वाले द्वेष से बाहर निकले. शीत युद्ध के द्वेष के कारण ही दोनों महान लोकतंत्र अलग-अलग किनारे पर खड़े थे. सोवियत यूनियन के पतन के बाद कोई कारण नहीं था कि दोनों देश एक-दूसरे के ख़िलाफ़ रहें.''
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एश्ले जे टेलिस ने लिखा है, ''शीत युद्ध के बाद अमेरिका और भारत के लोगों के आपसी संबंध बढ़े. अमेरिका की अर्थव्यवस्था को नया आकार देने में भारतीय प्रवासियों की अहम भूमिका रही. भारत ने भी शीत युद्ध के बाद आर्थिक सुधार किया और अमेरिकी कंपनियों के लिए अपना बाज़ार खोल दिया. इन फ़ैसलों के कारण दोनों देशों के साझे हित भी सामने आए. ख़ास कर इस्लामी आतंकवाद से मुक़ाबला, चीन के उभार के ख़तरे और उदार वैश्विक व्यवस्था की रक्षा जैसी चीज़ें थीं. अमेरिका का आकलन था कि मज़बूत भारत से अमेरिका और मज़बूत होगा.''
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत अपनी विदेश नीति गुटनिरपेक्षता के बजाय मल्टीअलाइनमेंट यानी सभी पक्षों के साथ होने की वकालत करता रहा है. लेकिन एश्ले टेलिस जैसे विशेषज्ञ भारत की इस नीति के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं दिखते हैं.
टेलिस मानते हैं कि भारत वैश्विक स्तर पर जिस प्रभाव की आकांक्षा रखता है, उसमें बहुध्रवीयता की चाह आड़े आ रही है.
टेलिस ने फॉरेन अफेयर्स में लिखा था, ''दुनिया की चौथी या संभवतः तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बावजूद भारत के प्रभाव में कोई नाटकीय बढ़ोतरी नहीं होगी. 2047 में भारत अपनी आज़ादी का जब शताब्दी वर्ष मनाएगा, तब भी उसे चीनी ताक़त का सामना करने के लिए विदेशी ताक़तों पर निर्भर रहना पड़ सकता है.''
''भारत अपने पारंपरिक साझेदारों या क़रीबी सहयोगियों के साथ सहज नहीं है, ऐसे में बाहरी समर्थन जुटाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है. ख़ासकर तब जब अमेरिका की विदेश नीति लेन-देन आधारित हो जाए या फिर अमेरिका भी भारत को प्रतिस्पर्धी के रूप में देखने लगे. आने वाले दशकों में भारत बेशक अधिक शक्तिशाली बनेगा लेकिन उस शक्ति का सार्थक उपयोग करने की इसकी क्षमता सीमित रह सकती है और इसका वैश्विक प्रभाव अपेक्षाकृत कम होगा.''
टेलिस ने लिखा था, ''शीतयुद्ध के दौरान भारत की तरक़्क़ी अपनी संभावनाओं से काफ़ी पीछे रही. हालांकि भारत ने आज़ादी से पहले की सदी में व्याप्त ठहराव को पार कर लिया, फिर भी 1950 से 1980 तक उसकी सालाना वृद्धि दर केवल लगभग 3.5 प्रतिशत रही, जो कि कई अन्य विकासशील देशों की तुलना में काफ़ी कम थी. 1980 के दशक में सीमित आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद भारत की औसत वृद्धि दर बढ़कर लगभग 5.5 प्रतिशत हो गई लेकिन यह वृद्धि दर भी अन्य एशियाई देशों की तुलना में फीकी ही रही.''
इसी महीने एश्ले टेलिस का एक लंबा आर्टिकल कार्नेगी एन्डॉमेंट की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था. इस लेख उन्होंने भारत के प्रति ट्रंप के रुख़ की विस्तार से चर्चा की थी.
टेलिस ने लिखा था, ''ट्रंप के हालिया व्यवहार से उत्पन्न हुई अनिश्चितताएं स्वाभाविक रूप से भारत को विचलित करती हैं और संभवतः उसे अमेरिका के साथ क़रीबी साझेदारी की ओर बढ़ने से रोकती हैं. ज़ाहिर है कि यह भारत के लिए लंबी अवधि के हित में भी है. लेकिन, सच्चाई यह है कि अमेरिका के साथ सहयोग तो करना लेकिन पूरी तरह से उसके प्रभाव में न आने के प्रति भारत की हिचकिचाहट ट्रंप से कहीं पहले की है. यह भारत की गहरी सांस्कृतिक और रणनीतिक उलझनों में निहित है. यह उसकी ख़ुद की महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा से जुड़ी हुई हैं.''
टेलिस ने लिखा है, ''अगर भारत की ट्रंप को लेकर वर्तमान चिंताओं को मान भी लिया जाए, तो यह तथ्य बना रहता है कि ट्रंप का अंतिम कार्यकाल है. दूसरी तरफ़ चीन को लेकर नई दिल्ली की रणनीतिक दुविधाएं कहीं अधिक पुरानी हैं. इस कारण अमेरिका के साथ एक विशेष साझेदारी बनाने की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि चीन की शक्ति और उसका आक्रामक रुख़ भारत के लिए एक रणनीतिक ज़रूरत है. ख़ास कर ऐसे समय में जब भारत अपने दम पर चीन से संतुलन नहीं बना सकता.''
एश्ले टेलिस को लगता है कि भारत अगर दूसरी शक्तियों के साथ द्विपक्षीय या बहुपक्षीय संबंधों में दिलचस्पी बनाए रखता है तो अमेरिका खुलकर उसके साथ नहीं आएगा.
टेलिस ने लिखा है, ''भारत अगर उन देशों के साथ भी गहरा संबंध बनाकर रखना चाहता है, जो अमेरिकी हितों को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहे हैं, तो अमेरिका भारत को खुलकर समर्थन नहीं दे सकता है. भारत बहुध्रुवीय दुनिया की बात करता है लेकिन इससे भारत को चीन के ख़तरे से निपटने में मदद नहीं मिलेगी. इसके लिए अमेरिका से मज़बूत साझेदारी ज़रूरी है. भारत की बहुध्रुवीय दुनिया की आकांक्षा अमेरिकी शक्ति और प्रभाव को कमज़ोर करने से जुड़ी है. ऐसे में अमेरिका इसे चुपचाप कैसे देख सकता है?''
पिछले महीने एश्ले टेलिस से भारत के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने पूछा था- आप 2000 के दशक में भारत में अमेरिकी राजदूत रॉबर्ट ब्लैकविल के वरिष्ठ सलाहकार थे. अभी जो भारत और अमेरिका के संबंध हैं, उसकी बुनियाद इसी दौर में पड़ी थी. अगर अभी आप भारत में नवनियुक्त अमेरिकी राजदूत सर्जियो गोर को कुछ सलाह देना चाहेंगे तो वे कौन सी बातें होंगी?
इसके जवाब में एश्ले टेलिस ने कहा था, ''मैं तीन सलाह देना चाहूँगा. पहला यह कि भारत की सरकार से यथासंभव अच्छा संबंध रखें. इसे मैंने राजदूत ब्लैकविल से सीखा था. यह हमारे साझे हितों को हासिल करने की क्षमता में बड़ा फ़र्क़ लाता है. दूसरी सलाह यह होगी कि भारत की विविधता को समझने की ज़रूरत है और इसके लिए देश भर में भारतीयों तक पहुँच बनानी चाहिए.''
टेलिस ने लिखा है, ''हमें यह समझने की ज़रूरत है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे लोग हैं जो अमेरिका के बारे में वैसा नहीं सोचते जैसा दिल्ली के लोग सोचते हैं. इसलिए सरकार तक सीमित न रहें. विपक्ष के सदस्यों, मीडिया, नागरिक समाज और देश के कोने-कोने तक पहुँचने की कोशिश करें. तीसरा, उन मुद्दों से दूर रहें जो अमेरिका के लिए केवल परेशानी लाते हैं, न कि सम्मान. सबसे प्रमुख मिसाल: भारत–पाकिस्तान संबंधों को संभालने की कोशिश. यह भारतीय विदेश नीति का सबसे संवेदनशील मुद्दा है. इसमें हस्तक्षेप करने से हमें कोई लाभ नहीं होता.''
इंडियन एक्सप्रेस ने टेलिस से एक और सवाल पूछा था- आपका कहना है कि भारत को देखने के नज़रिए में ट्रंप ने बुनियादी बदलाव किए हैं. क्या यह उनके व्यक्तित्व के कारण है या यह किसी गहरे बदलाव का संकेत है?
एश्ले टेलिस ने जवाब में कहा था, ''इसे सिर्फ़ ट्रंप के स्वभाव के रूप में देखना एक ग़लती होगी. यह बात सही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति का विदेश नीति पर ख़ासा प्रभाव होता है. ऐसे में ज़ाहिर है कि जो भी राष्ट्रपति ट्रंप करेंगे उसका असर ज़रूर होगा. लेकिन इसमें एक स्ट्रक्चरल पहलू भी है. अगर अमेरिका चीन को अहम चुनौती नहीं मानता है तो भारत की प्रासंगिकता अपने आप घट जाती है.''
''ट्रंप ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह चीन को इतना अहम जियोपॉलिटिकल प्रतिद्वंद्वी मानते हैं कि उन्हें भारत या जापान जैसे साझेदारों की ज़रूरत हो. दरअसल, उन्होंने जापान के साथ तो अपमानजनक व्यवहार किया है जबकि पारंपरिक रूप से जापान एशिया में अमेरिका का सबसे अहम साझेदार रहा है. इसलिए भारत और जापान, जो पहले अमेरिका की चीन-नीति के दो अहम स्तंभ माने जाते थे, दोनों ही अब उस अहम स्थान से गिर चुके हैं. ट्रंप के चौंकाने वाले, रंगीन व्यक्तित्व और उनके मूड में उतार-चढ़ाव को जोड़ लें, तो भारत को अचानक एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखे जाने की स्थिति उतनी हैरान नहीं करती है.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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