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राजेंद्र चोल का शासन, जब इंडोनिशिया तक भारत के राजा का था दबदबा

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Getty Images तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण राजेंद्र चोल प्रथम के शासनकाल में हुआ था

सन 850 के आसपास दक्षिण में पांड्यों और पल्लवों के बीच संघर्ष का फ़ायदा उठाते हुए एक अनजान-से राजा विजयालय ने तंजावुर पर कब्ज़ा कर लिया और इस तरह चोल राजवंश की नींव पड़ी.

सन 907 में चोल वंश के राजा पारंतक प्रथम गद्दी पर बैठे और उन्होंने 48 वर्षों तक राज किया लेकिन आगे के कमज़ोर चोल राजाओं के कारण चोल वंश का पतन होता चला गया. सन 985 में जब राजराजा चोल (प्रथम) ने गद्दी संभाली तो चोल वंश का फिर से उदय होना शुरू हुआ.

राजराजा चोल (प्रथम) और उनके बेटे राजेंद्र चोल के नेतृत्व में चोल एशिया की एक बड़ी सैनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताकत बन गए. एक समय ऐसा आया कि उनका साम्राज्य दक्षिण मे मालदीव से लेकर उत्तर में बंगाल में गंगा नदी के तट तक फैल गया.

रिचर्ड ईटन ने अपनी किताब 'इंडिया इन द परिशियानेट एज' में लिखा, "चोलों को 'तंजावुर के महान चोल' कहा जाने लगा. दक्षिण के पूरे तट पर उनके नियंत्रण को आज तक 'कोरोमंडल' कहकर याद किया जाता है. 'कोरोमंडल' शब्द 'चोलमंडल' शब्द का अपभ्रंश या बिगड़ा हुआ रूप है, जिसका अर्थ होता है-चोल साम्राज्य का दायरा."

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श्रीविजय राज्य से दुश्मनी image Getty Images नटराज मूल रूप से मध्यकालीन भारत में चोल वंश का प्रतीक था

11वीं सदी आते-आते खमेर और चोल व्यापारियों का बंगाल की खाड़ी से सटे राज्यों की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण हो चुका था. चोल और खमेर दोनों को अंदाज़ा हो गया था कि उनके हित एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.

इसी दौर में खमेर साम्राज्य भी बहुत बड़ा और प्रभावशाली था. मौजूदा कंबोडिया, थाईलैंड और वियतनाम के कई हिस्सों पर उनका शासन था. कंबोडिया के प्रसिद्ध अंगकोरवाट मंदिर खमेर राजाओं ने ही बनवाया था.

वाई सुब्बायारालु अपनी किताब 'साउथ इंडिया अंडर द चोलाज़' में लिखते हैं, "कई शिलालेखों में चोल और खमेर के बीच मित्रतापूर्ण संबंधों और सन 1020 में दोनों के बीच रत्नों और स्वर्णिम रथों के लेन-देन का ज़िक्र है. दोनों राज्यों को चीन की बढ़ती जनसंख्या और विलासिता की वस्तुओं में उनकी रुचि से बहुत व्यापारिक फ़ायदा हुआ था."

दोनों का एक प्रतिद्वंद्वी था- श्रीविजय राज्य. श्रीविजय के राजा बौद्ध थे और उनका दक्षिण-पूर्व एशिया के कई बंदरगाहों पर नियंत्रण था. वे चीन की तरफ़ जाने वाले सभी पोतों पर कर लगाते थे. जो पोत कर नहीं देते थे, उन पर हमला कर श्रीविजय की नौसेना उन्हें बर्बाद कर देती थी.

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श्रीविजय की हार image BBC

श्रीविजय के राजाओं की कूटनीति ने चोल वंश के राजा को नाराज़ कर दिया. श्रीविजय के राजा चोल राजाओं को मित्रतापूर्ण संदेश भेजते थे लेकिन मौजूदा तमिलनाडु के नागपट्टिनम बंदरगाह में एक बौद्ध मठ बनाने के लिए धन भी भेज रहे थे, तो दूसरी तरफ़ वो चीनी राजाओं से कह रहे थे कि चोल छोटे राजा हैं और उनके नियंत्रण में हैं.

चोल राजा राजेंद्र चोल ने 1015 में चीन के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित किए और तब उन्हें श्रीविजय की नीति का पता चला तो उन्होंने वहाँ के राजा विजयतुंगवर्मन को अपनी सैन्य शक्ति दिखाने का फ़ैसला कर लिया.

सन 1017 की लड़ाई में राजेंद्र चोल की जीत हुई और उन्होंने विजयतुंगवर्मन को बंदी बना लिया. बाद में उसने अपनी बेटी की शादी राजेंद्र चोल से करके उनकी अधीनता स्वीकार कर ली.

जीत के दौरान हिंसा का सहारा image Getty Images तमिलनाडु में चोल वंश के शासन में बनवाए गए किले के खंडहर

राजेंद्र चोल पूरे एशिया में एक बड़ी शख़्सियत बन चुके थे. अपनी सैन्य जीतों के दौरान हिंसा का सहारा लेने के लिए वो कुख्यात हो चुके थे.

उनके दुश्मनों ने उन पर युद्ध के नियमों को तोड़ने का आरोप लगाया. चालुक्यों का कहना था कि उन्होंने युद्ध के दौरान पूरे राज्य को तबाह कर डाला था और "ब्राह्मणों और महिलाओं की हत्या तक से नहीं हिचके थे".

अनिरुद्ध कणिसेट्टी अपनी किताब 'लॉर्ड्स ऑफ़ द डेकन, सदर्न इंडिया फ्रॉम चालुक्याज़ टू चोलाज़' में लिखते हैं, "श्रीलंका के इतिहास में भी दर्ज है कि राजेंद्र चोल के सैनिकों ने उनके साथ बहुत क्रूरता का व्यवहार किया था."

"उन्होंने राजसी परिवार की महिलाओं का अपहरण कर लिया था और अनुराधापुरम के शाही ख़ज़ाने को लूट लिया था. यही नहीं, उन्होंने बौद्ध मठों में स्तूपों को तोड़ कर वहाँ रखे रत्नों पर कब्ज़ा कर लिया था."

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श्रीलंका और मालदीव पर कब्ज़ा image Universal Images Group via Getty Images यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल पोलोन्नरुवा, जो श्रीलंका के साम्राज्य और चोल वंश का प्राचीन शाही नगर रहा है

सन 1014 में राजराजा के देहावसान के बाद राजेंद्र चोल ने गद्दी संभाली थी. सबसे पहले उन्होंने अपने पड़ोसियों पांड्यों और चेरों से निपटने के बाद, सन 1017 में श्रीलंका पर हमला बोला था.

उस ज़माने के शिलालेखों से पता चलता है कि हमले का उद्देश्य वहाँ की सत्ता हथियाना नहीं बल्कि अधिकाधिक मात्रा में सोना और दूसरी क़ीमती चीज़ें लाना था. बहरहाल, इसका नतीजा ये हुआ कि पहली बार पूरे श्रीलंका द्वीप पर चोलों का नियंत्रण हो गया.

एक वर्ष बाद 1018 में राजेंद्र चोल नौसैनिक अभियान लेकर मालदीव और लक्षद्वीप गए और दोनों क्षेत्रों को चोलों का उपनिवेश बना लिया. सन 1019 में उन्होंने उत्तरी कर्नाटक और दक्षिणी महाराष्ट्र में सैनिक अभियान भेजे. सन 1021 में उन्होंने चालुक्य और कल्याण पर विजय प्राप्त की, जिनका पूरे दक्षिण भारत पर नियंत्रण था.

गंगा का पानी दक्षिण ले गए image Getty Images तमिलनाडु में चोल राजवंश के शासन में बना शिव को समर्पित एक हिंदू मंदिर

सन 1022 में वो अपना साम्राज्य 1000 मील दूर गंगा के किनारे और उसके आगे तक गए. रास्ते में उन्होंने ओडिशा और बंगाल के शक्तिशाली पाल वंश के राजा महिपाल को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए मजबूर किया.

रिचर्ड ईटन लिखते हैं, "राजेंद्र बंगाल से काफ़ी क़ीमती रत्न, उनकी पवित्र देवताओं की मूर्तियाँ और पीपों में गंगा का पवित्र पानी लेकर अपने राज्य वापस लौटे. इस उपलब्धि की याद में उन्होंने 'गंगईकोंड' की उपाधि धारण की. उन्होंने 'गंगईकोंड चोलपुरम' को अपनी नई राजधानी बनाया. गंगईकोंड का अर्थ होता है--गंगा को जीतने वाला".

जानी-मानी इतिहासकार रोमिला थापर अपनी किताब 'अर्ली इंडिया' में लिखती हैं, "विजय के बाद गंगा का पानी दक्षिण ले जाना उत्तर पर दक्षिण की जीत का प्रतीक था."

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सुमात्रा तक नौसैनिक अभियान image Getty Images इंडोनेशिया का प्रंबनन मंदिर, जिसका निर्माण नौवीं शताब्दी में हुआ था

राजेंद्र ने राजधानी में शिव को समर्पित एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जो 250 वर्षों से अधिक समय तक शैव भक्ति और चोल वास्तुकला का प्रतीक रहा.

राजेंद्र चोल ने अपनी राजधानी में एक विशाल कृत्रिम झील बनवाई, जिसकी लंबाई 16 मील और चौड़ाई तीन मील थी. इसी झील में बंगाल से लाया गया गंगा का पानी डाला गया लेकिन राजेंद्र बहुत दिनों तक उत्तर पर अपना नियंत्रण बरक़रार नहीं रख सके.

राजेंद्र मालदीव और श्रीलंका में विजय अभियान के बाद बहुत उत्साहित थे और वो एक और बड़े विदेशी अभियान की योजना बनाने में जुट गए. इस बार उन्होंने इंडोनेशिया में सुमात्रा तक अपनी नौसेना भेजने का अभूतपूर्व फ़ैसला किया.

नौसेना की श्रीविजय पर एक और जीत image Getty Images इतिहासकार विलियम डेलरिंपल ने अपनी किताब 'द गोल्डन रोड' में चोलों के विदेशी अभियान का ज़िक्र किया है

इससे पहले सन 1017 में राजेंद्र चोल और श्रीविजय के राजा की भिड़ंत हो चुकी थी, जिसमें राजेंद्र की नौसेना विजयी रही थी.

इसका ज़िक्र मलेशिया के एक नगर कटाह के शिलालेख में मिलता है, जिसमें राजेंद्र को 'कटाह का विजेता' बताया गया है लेकिन सन 1025 में राजेंद्र चोल ने श्रीविजय से लड़ने के लिए अपनी नौसेना का पूरा बेड़ा भेजा.

पॉल मुनोज़ ने अपनी किताब 'अर्ली किंगडम्स' में लिखा है, "इस अभियान में जीत के बाद जिस समझौते पर दस्तख़त किए गए, उसके अंतर्गत ही अंगकोर के राजा सूर्यवर्मन ने राजेंद्र चोल को क़ीमती तोहफ़े भेंट किए. राजेंद्र चोल ने इस अभियान के लिए बहुत बड़ा नौसैनिक दल भेजा था, जो संभवत: चोलों के मुख्य बंदरगाह नागपट्टिनम में एकत्रित हुआ था."

विलियम डेलरिंपल अपनी किताब 'द गोल्डन रोड' में लिखते हैं, "इस अभियान के लिए सैनिकों और यहाँ तक कि हाथियों को भी पोतों में लादा गया था. चोलों ने श्रीलंका में एक बंदरगाह से होते हुए अपने अभियान की शुरुआत की थी."

"कई दिनों की समुद्री यात्रा के बाद उन्होंने सुमात्रा, थाईलैंड के बंदरगाह टकुआ पाह और मलेशिया में केदाह पर अचानक हमला बोल दिया था. ये किसी भी दक्षिण एशियाई राज्य का देश के बाहर सबसे लंबी दूरी का सैनिक अभियान था."

इस अति-महत्वाकांक्षी और सफल रहे अभियान के बाद राजेंद्र का दबदबा दक्षिण-पूर्व एशिया में फैल गया.

इस जीत से गौरवान्वित राजेंद्र चोल ने सन 1027 में इसका पूरा वर्णन तंजावुर के मंदिर की एक दीवार पर लिखवा दिया था.

विजय और संगीता सखूजा अपनी किताब 'राजेंद्र चोला, फ़र्स्ट नेवल एक्सपिडिशन टू साउथ-ईस्ट एशिया' में लिखते हैं, "इन अभिलेखों में जिन छह स्थानों का ज़िक्र है, उनमें से चार सुमात्रा, एक मलय प्रायद्वीप और एक निकोबार द्वीप में हैं."

"हो सकता है कि राजेंद्र उस जगह से भी गुज़रे हों, जिसे आज सिंगापुर कहा जाता है. इसकी वजह ये है कि वहाँ पर भी एक शिलालेख मिला है, जिसमें राजेंद्र चोल की कई उपाधियों में से एक का ज़िक्र है."

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चीन के साथ नज़दीकी संबंध image Getty Images तमिलनाडु के चिदंबरम का नटराज मंदिर भी चोल साम्राज्य के दौरान बनवाया गया था

इतिहासकारों का मानना है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में राजेंद्र चोल की नौसेना के घुसने का उद्देश्य जीत हासिल करना नहीं बल्कि व्यापार युद्ध में सैनिक शक्ति का इस्तेमाल करना था ताकि समुद्री रास्तों पर श्रीविजय की पकड़ को कमज़ोर किया जा सके.

केनेथ हॉल अपनी किताब 'खमेर कमर्शियल डेवेलपमेंट एंड फ़ॉरन कॉन्टैक्ट्स अंडर सूर्यवर्मन फ़र्स्ट' में लिखते हैं, "इन अभियानों का मुख्य उद्देश्य चीन के साथ अधिक लाभकारी व्यापार मार्ग को खोलना था. उस समय चीन में काली मिर्च, मसालों, जंगल उत्पादों और कपास की मांग तेज़ी पर थी और चोलों को उम्मीद थी कि वो इन चीज़ों का चीन तक पहुंचा कर बहुत लाभ कमा सकेंगे."

श्रीविजय को रक्षात्मक मुद्रा अपनाने के लिए मजबूर करने के बाद राजेंद्र चोल ने चीन में अपना दूत भेजा.

वो अपने साथ चीनी सम्राट के लिए हाथी दाँत, मोती, गुलाब जल, गैंडों के सींग और सिल्क के कपड़ों जैसे कई क़ीमती उपहार लेकर गया. कुछ दिनों बाद चीनी नगर ग्वांगज़ो में एक मंदिर का निर्माण करवाया गया जिसका कुछ हिस्सा अभी तक बचा हुआ है.

जॉन गाई अपनी किताब तमिल मर्चेंट्स एंड द हिंदू-बुद्धिस्ट डायस्पोरा में लिखते हैं, "एक चीनी शिलालेख में इस बात का उल्लेख है कि 1067-69 तक चोल राजकुमार दिवाकर चीन में बने इस मंदिर के रख-रखाव के लिए धन उपलब्ध कराते रहे थे."

तमिल व्यापारी चीन से जहाज़ों में भरकर सुगंधित लकड़ियां, धूप बत्तियाँ, कपूर, मोती, चीनी मिट्टी के बर्तन और सोना कोरोमंडल के बंदरगाहों तक लाया करते थे.

खमेर साम्राज्य के साथ संबंध image Getty Images कंबोडिया में अंगकोरवाट मंदिर को स्थानीय खमेर वंश और चोल साम्राज्य के सहयोग की निशानी के रूप में भी देखा जाता है

राजेंद्र चोल के समय चोल और खमेर वंश के बीच सहयोग का प्रमाण अंगकोरवाट में दुनिया के सबसे बड़े मंदिर के निर्माण के तौर पर हुआ. यह मंदिर आज भी मौजूद है और क़रीब 500 एकड़ में फैला हुआ है.

भगवान विष्णु का यह मंदिर परिसर इतना बड़ा है कि इसे अंतरिक्ष तक से देखा जा सकता है. ये मंदिर लगभग उसी समय बनाया गया था, जब तंजावुर और चिदंबरम में चोल मंदिर बन रहे थे और हिंद महासागर की दो बड़ी शक्तियाँ नज़दीकी मित्र हुआ करती थीं.

एक अच्छे योद्धा के साथ-साथ राजेंद्र चोल एक अच्छे प्रशासक भी थे. उन्होंने कई गाँवों में उच्च श्रेणी के गुरुकुल स्थापित किए, जहाँ छात्रों को संस्कृत और तमिल भाषा की शिक्षा दी जाती थी.

तंजावुर के अलावा उन्होंने श्रीरंगम, मदुरै और रामेश्वरम में कई भव्य मंदिर बनवाए, जिन्हें आज भी स्थापत्य कला की मिसाल माना जाता है. राजेंद्र चोल के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने न सिर्फ़ समुद्र को जीता बल्कि लोगों के दिलों पर भी राज किया.

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