सऊदी अरब ने दशकों पुराने 'कफ़ाला' यानी स्पॉन्सरशिप सिस्टम को ख़त्म करने का एलान किया है.
सऊदी प्रेस एजेंसी के मुताबिक इस व्यवस्था में विदेशी कामगारों को पूरी तरह से अपने नियोक्ता यानी काम देने वाले पर निर्भर रहना पड़ता था.
मानवाधिकार संगठन लंबे समय से कफ़ाला सिस्टम को 'आधुनिक गुलामी' बताते आए हैं.
अब सऊदी अरब ने इसे ख़त्म कर एक नए कॉन्ट्रैक्ट आधारित रोजगार मॉडल की शुरुआत की है. नई व्यवस्था से लाखों भारतीय कामगारों को फ़ायदा होगा.
भारतीय विदेश मंत्रालय के मुताबिक़ सऊदी अरब में भारतीय समुदाय के लगभग 27 लाख लोग रहते हैं.
नई व्यवस्था के मुताबिक़ अब कामगार अपने कफ़ील की मर्जी के बिना भी अपनी नौकरी बदल पाएंगे.
इसके अलावा देश छोड़ने के लिए भी कफ़ील की अनुमति की जरूरत नहीं होगी. नए सिस्टम में कामगारों को कानूनी मदद मुहैया करवाई जाएगी. कफ़ील कामगारों के स्पॉन्सर या मालिक को कहते हैं.
इसका मतलब है कि अगर किसी कामगार को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है या उसे काम में दिक्कतें आ रही हैं तो वह शिकायत कर सकता है.
इसके साथ ही नए सिस्टम में काम के घंटे, कंपनी के लिए कामगारों के अधिकार, वेतन और अन्य चीजें तय करना जरूरी कर दिया गया है.
क्या है कफ़ालाकफ़ाला सिस्टम दरअसल नौकरी की स्पॉन्सरशिप व्यवस्था है, जो कई खाड़ी देशों में लागू है.
इस सिस्टम में जब कोई विदेशी कामगार खाड़ी देशों में जाता है, तो उसे एक स्थानीय व्यक्ति या कंपनी के अधीन रहना पड़ता है.
उदाहरण के लिए अगर आप बहरीन में काम करने गए हैं तो आपका वीज़ा, नौकरी, वहां रहने की अनुमति और यहां तक कि देश छोड़ने की अनुमति भी आपके मालिक यानी कफ़ील के हाथ में होगी.
आप बिना कफ़ील की इजाज़त के न तो नौकरी बदल सकते हैं और न ही अपने देश वापस आ सकते हैं. ज्यादातर मामलों में व्यक्ति का पासपोर्ट भी कफ़ील के पास ही रहता है.
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सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अपने विज़न 2030 के तहत देश को अगले आठ साल में दुनिया का आर्थिक और व्यावसायिक केंद्र बनाना चाहते हैं.
मध्य पूर्व में सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक देश है, लेकिन बीते कुछ वर्षों से सऊदी अरब शासन अपने व्यापार और अपनी अर्थव्यवस्था की निर्भरता तेल पर घटाना चाहती है. सऊदी अरब इसके लिए अन्य स्रोतों को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि ऐसा करने के लिए सऊदी अरब को विदेशी निवेश और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों की जरूरत है, लेकिन कफ़ाला सिस्टम से कंपनियां डरती हैं.
उनका कहना है कि कफ़ाला सिस्टम को ख़त्म कर क्राउन प्रिंस अपने देश की छवि को भी बदलना चाहते हैं.
मोहम्मद बिन सलमान ने पहले भी यह दिखाने की कोशिश की है कि वे रूढ़िवादी साम्राज्य में एक सुधारवादी शासक हैं.
उन्होंने महिलाओं को ड्राइविंग की इजाज़त दी. उनके सत्ता में आने से पहले वहां इसकी इजाज़त नहीं थी.
इसके अलावा सऊदी को बड़े पैमाने पर कामगारों की जरूरत है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि अगर सिस्टम में बदलाव नहीं होता तो मजदूरों की कमी सऊदी को परेशान कर सकती थी.
खाड़ी देशों में नौकरी के कई अवसर
कई कामगार यह सपना लेकर पलायन करते हैं कि अगर उन्हें विदेश में नौकरी मिल जाए तो वे बेहतर जीवन जी सकेंगे. उनमें से कुछ लोग इस सपने को पूरा करने में कामयाब भी हो जाते हैं.
अक्सर किसी को इन नौकरियों के बारे में अपने क़रीबियों के माध्यम से जानकारी मिलती है और वह ऐसी नौकरी करने के लिए तैयार होते हैं.
इन जीसीसी (गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल) देशों में बड़ी संख्या में नौकरियों के अवसर भी प्रवास का एक प्रमुख कारण है.
साल 2022 में फुटबॉल का विश्व कप क़तर में आयोजित किया गया था. इस विश्व कप के लिए सात स्टेडियम, नए हवाई अड्डे, मेट्रो सेवाएं, सड़कें और क़रीब 100 होटल बनाए गए थे. जिस स्टेडियम में फाइनल मैच होना था उसके चारों तरफ पूरा शहर बसाया गया था.
अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन ने अनुमान लगाया था कि विश्व कप की तैयारियों के लिए क़रीब 5 से 10 लाख कर्मचारी पलायन करेंगे.
हालांकि, क़तर सरकार ने कहा कि इन स्टेडियमों को बनाने के लिए ही 30 हज़ार विदेशी कर्मचारियों को काम पर रखा गया था.
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जीसीसी देशों में अब श्रमिकों के लिए नियम और क़ानून हैं और भारत सरकार भी इन श्रमिकों के लिए काम के हालात और न्यूनतम मजदूरी जैसे मसलों के लिए नीतियां निर्धारित करती है.
दरअसल एक सच ये भी है कि खाड़ी देशों की मुद्राएं भारतीय रुपये की तुलना में काफ़ी मज़बूत हैं, इसका फ़ायदा कामगारों को होता है. यानी अगर कोई भारतीय कामगार पैसे की बचत करता है भारतीय रुपये की तुलना में उसकी बचत का मूल्य अधिक होता है.
बहरीन की मुद्रा यानी दिनार क़रीब 221 रुपये का है. जबकि ओमान के एक रियाल की कीमत 217 रुपये के आसपास है.
कुवैत के एक दिनार का मूल्य 272 रुपये के क़रीब है. जबकि क़तर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के रियाल का मूल्य 22 से 23 रुपये के आसपास है.
श्रमिकों से भारत को होने वाला लाभभारतीय विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़, साल 2022 में जीसीसी देशों में क़रीब 90 लाख भारतीय रह रहे थे.
जीसीसी का मतलब खाड़ी सहयोग परिषद है. इसमें छह देश शामिल हैं- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), ओमान, बहरीन, क़तर और कुवैत. इस समूह की स्थापना सन 1981 में हुई थी.
इनमें सबसे ज़्यादा यानी 35 लाख से ज़्यादा भारतीय संयुक्त अरब अमीरात में रहते हैं. वहीं सऊदी अरब में करीब 25 लाख भारतीय रहते हैं.
जबकि कुवैत में नौ लाख से ज़्यादा, कतर में आठ लाख से ज़्यादा, ओमान में साढ़े छह लाख से ज़्यादा और बहरीन में तीन लाख से ज़्यादा भारतीय रहते हैं.
भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण एशियाई देशों के ढेरों लोग जीसीसी समूह के देशों में रहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक़ इन छह जीसीसी देशों में एक करोड़ 70 लाख से ज़्यादा दक्षिण एशियाई नागरिक रह रहे हैं.
साल 2021 में जीसीसी देशों से भारत को 87 अरब अमेरिकी डॉलर भेजे गए. साल 2022 में यह रकम बढ़कर 115 अरब अमेरिकी डॉलर हो गई.
17वीं लोकसभा में पेश विदेश मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दिसंबर 2023 तक इन देशों से भारत को 120 अरब अमेरिकी डॉलर प्राप्त हुए हैं.
इन जीसीसी देशों से सबसे अधिक धन भारत भेजा जाता है. इसके बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका के कामगार अपने देश में पैसे भेजते हैं. छह देशों में से भारत को सबसे ज्यादा पैसा यूएई से मिलता है. इसके बाद सऊदी अरब, ओमान, कुवैत, क़तर और बहरीन का नंबर आता है.
अंग्रेजों के शासन के बाद से ही भारत से खाड़ी देशों में काम के लिए पलायन होता रहा है.
चिन्मय तुम्बे वैश्विक स्तर पर माइग्रेशन के एक्सपर्ट हैं. उनका कहना है कि 1970 के दशक से जीसीसी देशों में शुरू हुआ माइग्रेशन इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है.
तुम्बे लिखते हैं कि शुरुआती दिनों में खाड़ी देशों में काम करने जाने वाले लोगों की संख्या कम थी, लेकिन 1930 के दशक तक ब्रिटिश शासित शहर अदन (अब यमन में) में क़रीब दस हज़ार भारतीय थे.
भारत में रिलायंस इंडस्ट्रीज की स्थापना करने वाले धीरूभाई अंबानी ने भी एक दशक तक इसी अदन बंदरगाह पर काम किया था.
तेल की खोज के बाद खाड़ी देशों में काम करने के लिए पलायन करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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