घी और दही का मट्ठा हमेशा मिट्टी की हांडी में ही बनता था। यह समझ में आता है कि हजारों वर्षों से मिट्टी के बर्तन हमारे देश में क्यों प्रचलित रहे हैं। भारत में 2000 से 5000 साल पहले एल्युमीनियम का निर्माण संभव था, क्योंकि यहां बॉक्साइट की प्रचुरता है। कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में बॉक्साइट के बड़े भंडार हैं। हालांकि, हमारी प्राथमिकता मिट्टी के बर्तनों पर थी, जिससे हमने कई अनुसंधान और प्रयोग किए। इस प्रकार, कुम्हारों की एक पूरी पीढ़ी इस कला में लगी रही।
दुर्भाग्यवश, समाज में कुम्हारों को नीची जाति माना गया, जबकि वे असल में वैज्ञानिक हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने में उनकी विशेषज्ञता अद्वितीय है। वे जानते हैं कि किस मिट्टी से कौन सा बर्तन बनाना है, जैसे हांडी, कुल्हड़ आदि। यह सब ज्ञान बिना किसी औपचारिक शिक्षा के प्राप्त किया गया है।
मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करने से हमारे माइक्रोन्यूट्रिएंट्स सुरक्षित रहते हैं। धातु के बर्तनों की तुलना में मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने से पोषक तत्वों की हानि कम होती है। उदाहरण के लिए, कांसे और पीतल के बर्तनों में भी कुछ पोषक तत्वों की कमी होती है, लेकिन मिट्टी के बर्तन में यह समस्या नहीं होती।
यदि आप जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाना चाहते हैं, तो मिट्टी की हांडी का उपयोग करें। यह न केवल स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतीक है। पिछले कुछ वर्षों में मैंने गांवों में इस विषय पर चर्चा की है, जिससे कुम्हारों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है।
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने के लाभ
इस विडियो में देखिए फाइव स्टार होटल में मिटटी के बर्तनों में खाना बनता है >>
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मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से न केवल पोषण में वृद्धि होती है, बल्कि यह एक पारंपरिक और प्राकृतिक तरीका भी है। यह सुनिश्चित करता है कि खाना पकाने के दौरान सूर्य की किरणें और हवा का स्पर्श भी मिलता है।
यदि आप गुणवत्ता की तलाश में हैं, तो मिट्टी की हांडी का उपयोग करें। यह न केवल स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है, बल्कि यह पर्यावरण के अनुकूल भी है। मिट्टी के बर्तन खत्म होने पर वे फिर से मिट्टी में मिल जाते हैं, जिससे कोई प्रदूषण नहीं होता।
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