पत्नी के अंतिम संस्कार और तेरहवीं के बाद रिटायर्ड पोस्टमैन मनोहर अपने गाँव से मुंबई बेटे सुनील के बड़े मकान में आ गए।
सुनील पहले भी कई बार बुलाना चाहता था, पर अम्मा हमेशा कह देतीं –
“बाबूजी कहाँ बेटे-बहू की ज़िंदगी में दखल देंगे! सारी ज़िंदगी यहीं कटी है, जो बची है वह भी यहीं कटेगी।”
इस बार कोई रोकने वाला न था और पत्नी की यादें बेटे के स्नेह से भारी पड़ गईं।
घर में घुसते ही मनोहर ठिठक गए।
नरम गुदगुदी मैट पर पैर रखने में हिचकिचाहट हुई।
उन्होंने कहा –
“बेटा, मेरे गंदे पैरों से यह चटाई गंदी तो नहीं हो जाएगी?”
सुनील मुस्कुराया –
“बाबूजी, इसकी चिंता मत कीजिए। आइए, बैठ जाइए।”
मनोहर जैसे ही गद्देदार सोफ़े पर बैठे तो घबरा उठे –
“अरे रे! मर गया रे!”
नरम कुशन भीतर तक धँस गया था।
सुनील उन्हें घर दिखाने ले गया –
लॉबी, जहाँ मेहमान आते हैं।
डाइनिंग हॉल और रसोई।
बच्चों का अलग कमरा।
अपना और बहू का बेडरूम।
गेस्ट रूम अतिथियों के लिए।
यहाँ तक कि एक पालतू जानवरों का कमरा भी।
फिर ऊपर ले जाकर उसने स्टोर रूम दिखाया –
“बाबूजी, यह कबाड़खाना है। टूटी-फूटी चीजें यहीं रखी जाती हैं।”
वहीं अंदर एक फोल्डिंग चारपाई पर बिस्तर लगा था और पास ही मनोहर का झोला रखा था।
मनोहर ने देखा… बेटे ने उन्हें घर के कबाड़ वाले कमरे में जगह दी थी।
चारपाई पर बैठकर मनोहर ने सोचा –
“कैसा यह घर है जहाँ भविष्य में पाले जाने वाले कुत्ते के लिए कमरा है, पर बूढ़े माँ-बाप के लिए नहीं! नहीं… अभी मैं कबाड़ नहीं हुआ हूँ। सुनील की माँ बिल्कुल सही थी। मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था।”
सुबह सुनील चाय लेकर ऊपर पहुँचा तो कमरा खाली था।
बाबूजी का झोला भी नहीं था।
वह नीचे भागा तो देखा – मेन गेट खुला हुआ था।
उधर मनोहर पहले ही गाँव लौटने वाली सबेरे वाली गाड़ी में बैठ चुके थे।
कुर्ते की जेब से घर की पुरानी चाभी निकाली, कसकर मुट्ठी में पकड़ी और मुस्कुरा दिए।
चलती गाड़ी की हवा उनके फैसले को और मजबूत कर रही थी –
“अब अपने बुढ़ापे का सहारा मैं खुद हूँ। औलाद पर नहीं।”
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