रूस और यूक्रेन पिछले तीन साल में युद्ध खत्म करने को लेकर बातचीत के इतने करीब कभी नहीं पहुंचे। यूरोप और एशिया को जोड़ने वाले तुर्किये के इस्तांबुल में गुरुवार को जब दोनों देश आमने-सामने होंगे, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इस लड़ाई को रुकवाने के लिए कोई हल निकल आएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भी इस दौरान तुर्किये में मौजूद रहने के संकेत दिए हैं, जो सकारात्मक कहा जा सकता है। मॉस्को का प्रस्ताव: इस बार उम्मीद ज्यादा इसलिए है, क्योंकि मुलाकात का प्रस्ताव रूस की तरफ से आया है। यूक्रेन और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने रूस के सामने 30 दिनों के संघर्षविराम का प्रस्ताव रखा था। मॉस्को ने इसे तो अस्वीकार कर दिया, लेकिन कहा कि वह सीधी बातचीत के लिए तैयार है। आमने-सामने दोनों पक्ष: अभी तक रूस और यूक्रेन के बीच किसी न किसी मध्यस्थ की मौजूदगी जरूर रही है। पहली बार यह मुलाकात सही अर्थों में द्विपक्षीय होगी। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन इसमें खुद मौजूद रहते हैं या उनका कोई प्रतिनिधि जाता है, इस बारे में मॉस्को ने अभी कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी है, पर उसका वार्ता की मेज तक पहुंचना ही बड़ा डिवेलपमेंट है। ट्रंप का रोल: रूस और यूक्रेन अगर इस स्थिति तक पहुंचे हैं, तो इसमें ट्रंप की भूमिका से इनकार नहीं कर सकते। दूसरी बार राष्ट्रपति पद संभालने के पहले से ही उन्होंने युद्ध रुकवाने की बात कहनी शुरू कर दी थी। यूक्रेन को लेकर ट्रंप और उनके डेप्युटी जेडी वेंस के रवैये की आलोचनाओं के बावजूद यह मानना होगा कि अमेरिका ने हिचक तोड़कर रूस से सीधी बात की। उसने सभी पक्षों पर लड़ाई रोकने का दबाव बनाया है। इस सीधी मुलाकात के लिए भी जब रूस की तरफ से प्रस्ताव आया तो ट्रंप ने यूक्रेन को सुझाव दिया कि उसे तुरंत इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। यूरोप का पक्ष: यूरोप चाहता था कि सीजफायर स्वीकार न करने की स्थिति में रूस पर नए प्रतिबंध लगाए जाएं और अमेरिका इसमें साथ दे। जब यूक्रेन से ट्रंप नाराज हो गए थे, तब भी यूरोप उसके साथ खड़ा रहा। ऐसे में बातचीत भले आमने-सामने की हो, लेकिन इसमें यूरोप का पहलू जरूर शामिल होगा। समझौते की आस: उम्मीदें बहुत हैं, लेकिन कोई सकारात्मक परिणाम तभी मिलेगा, जब रूस-यूक्रेन समझौते को लेकर प्रतिबद्धता दिखाएं। फरवरी 2022 में युद्ध शुरू होने के चार दिन बाद ही शांति को लेकर कोशिशें की गई थीं। बाद में इस्तांबुल में ही एक मीटिंग भी हुई थी, लेकिन कई मुद्दों पर बात नहीं बन पाई। दोनों देश अपनी जगह अड़े रहे। तीन साल बाद स्थितियां काफी बदल चुकी हैं और दुनिया आशा कर रही है कि दोनों पक्ष शांति की राह पर आगे बढ़ेंगे।
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