बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस ने अपनी पहचान जबरदस्त नेटवर्किंग के जरिये बनाई है। ऐसे में इस बात पर यकीन करना बहुत मुश्किल है कि चीन से लौटने के बाद उन्होंने जो बयान दिया, उसके असर का उन्हें अंदाजा नहीं होगा। यूनुस ने भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों को लैंड लॉक्ड यानी जमीन से घिरा बताया और कहा कि बांग्लादेश के पास समुद्र का स्वामित्व है। इन बातों से उनकी मंशा साफ हो जाती है। बिगड़े रिश्ते: बांग्लादेश में पिछले साल अगस्त में शेख हसीना की सरकार को उखाड़ फेंका गया। तब से नई दिल्ली और ढाका के रिश्तों में ठंडापन है। रिश्तों पर जमी बर्फ को यूनुस पिघला नहीं सके, तो अब वह चीन के साथ खुलकर करीबी दिखा रहे हैं। चीन के इस समर्थन को बांग्लादेश में कुछ लोग अपने देश की ताकत और आत्मसम्मान के रूप में भी देख रहे हैं। इसी माहौल में बैंकॉक में हाल ही में BIMSTECH सम्मेलन के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी और यूनुस की मुलाकात हुई। आपस की लड़ाई: इसमें कोई शक नहीं कि मोहम्मद यूनुस की नजर अपने देश के हालात पर भी थी। पिछले एक पखवाड़े में कानून-व्यवस्था की स्थिति चरमरा गई है। जिन ताकतों ने एक होकर शेख हसीना की अवामी लीग सरकार को सत्ता से बेदखल किया था, अब उन्हीं के बीच टकराव बढ़ रहा है। इस बीच यह अफवाह भी तेजी से फैल रही है कि सेना जल्द ही सत्ता अपने हाथ में ले सकती है। 25 फरवरी को सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमां ने सार्वजनिक रूप से अंतरिम सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि आपसी लड़ाई बंद करके मिलकर काम करें। यह कहना आसान है, लेकिन करना मुश्किल। कट्टर सोच: अब यह साफ हो गया है कि मोहम्मद यूनुस कुछ कट्टरपंथियों पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गए हैं। ये लोग अंतरिम सरकार का हिस्सा हैं और साथ में अपनी अलग राजनीतिक पार्टी भी बना ली है। इन 'स्टूडेंट एक्टिविस्ट्स' को इस्लामिक सोच से जुड़ा माना जाता है। यही लोग 1971 के मुक्ति संग्राम से जुड़े प्रतीकों को मिटाने की मुहिम चला रहे हैं। साथ ही, 2024 के विद्रोह को आधार बनाकर एक दूसरा इस्लामी गणराज्य बनाना चाहते हैं। हिंदुओं पर हमले: इन लोगों की सोच ने ही भारत के खिलाफ नफरत को बढ़ावा दिया है। बांग्लादेश ने हिंदू अल्पसंख्यकों पर हुए हमलों को यह कहकर छुपाने का प्रयास किया कि हसीना सरकार के समर्थकों को निशाना बनाया गया है। हालांकि सच यही है कि अंतरिम शासन के सशस्त्र समर्थकों को बहुलवाद से कोई मतलब नहीं है। स्वामी चिन्मय प्रभु को देशद्रोह के आरोप में लगातार परेशान किया जा रहा है। इसका मकसद हिंदुओं को संदेश देना है कि सार्वजनिक जीवन से दूर रहो वरना अंजाम भुगतना पड़ेगा। इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए स्वामी चिन्मय दुश्मन हैं, क्योंकि वह हिंदुओं को भारत पलायन करने के बजाय बांग्लादेश में ही रहकर संघर्ष करने का संदेश देते हैं। चुनाव का सवाल: जिन लोगों ने 1971 की जंग में हार झेली थी, अब बांग्लादेश को उनकी सोच के हिसाब से बदलने की कोशिश की जा रही है। लेकिन, यह बात कुछ लोगों को पसंद नहीं आ रही, जैसे कि बांग्लादेश नैशनल पार्टी। BNP खुद भी आजादी की लड़ाई से जुड़ी रही है और जल्द चुनाव चाहती है, क्योंकि उसे जीत की उम्मीद है। दूसरी ओर, यूनुस सरकार में मौजूद कट्टरपंथी छात्र नेता पहले बड़े बदलाव चाहते हैं, जैसे नया संविधान बनाना। इस टकराव से यूनुस को फायदा हो रहा है। उन्होंने यह कहने से भी ऐतराज नहीं किया कि उन्हें 10 बरसों तक सरकार चलानी चाहिए। भारत का जवाब: भारत ने बांग्लादेश में चल रही उथल-पुथल का जवाब थोड़ी सख्ती और थोड़ी नरमी के साथ दिया है। व्यापार और जरूरी सामानों की सप्लाई लगभग पहले की तरह जारी है, सिर्फ थोड़ी रुकावटें आई हैं। यहां तक कि बांग्लादेश की गारमेंट इंडस्ट्री के लिए जरूरी सूत की सप्लाई भी बंद नहीं हुई है। हालांकि भारत ने बांग्लादेशियों को मिलने वाले वीजा, खासकर मेडिकल वीजा में कटौती कर दी है। कुछ बांग्लादेशी भले ही यह दावा कर रहे हों कि भारत की नई वीजा नीति से कोलकाता की अर्थव्यवस्था ठप हो गई है, लेकिन असल में ज्यादा नुकसान छोटे व्यापारियों को हुआ है। चुनौतियां और चिंताएं: बांग्लादेश के साथ रिश्तों में भारत के लिए राजनीतिक और रणनीतिक, दोनों तरह की चुनौतियां हैं। चूंकि बांग्लादेश के भीतर भारत की छवि बहुत ताकतवर है, इसलिए उसके हर कदम पर बारीक नजर रखी जाती है और कई बार गलत अर्थ भी निकाल लिया जाता है। इसीलिए भारत अभी कोई बड़ा कदम उठाने से बच रहा है। लेकिन, बांग्लादेश में पाकिस्तान की सक्रियता से नई दिल्ली की सुरक्षा संबंधी चिंताएं बढ़ गई हैं। जरूरी कदम: आदर्श रूप में, भारत को बांग्लादेश में चुनी हुई सरकार का इंतजार करना चाहिए, लेकिन मोहम्मद यूनुस की प्राथमिकता में लोकतंत्र की बहाली नहीं दिखती। अगर बांग्लादेश की जमीन का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए होने लगता है, तो नई दिल्ली को पहले ही कोई कदम उठाना पड़ सकता है। 'चिकन नेक' की सुरक्षा प्राथमिकता होनी चाहिए। शेख हसीना की सरकार के दौरान भारत को भरोसा था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर दोनों देश एक जैसा सोचते हैं। अब जब ढाका से वैसा सहयोग मिलना तय नहीं है, तो भारत को अपने पूर्वी हिस्से की सुरक्षा के लिए दूसरे रास्ते तलाशने होंगे।
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